Saturday, May 2, 2009


आतंकवाद और गांधीवाद

आतंकवाद के समय में गांधी
राजकिशोर

महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय नजर आता है, तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। जब शहर-दर-शहर बम विस्फोट हो रहे हों और निर्दोष तथा अनजान लोगों की जान जा रही हो तथा आतंकवादी समूह इस तरह प्रसन्न हो रहे हों जैसे उन्होंने किसी महान काम को अंजाम दे दिया हो, उस वक्त हम गांधी की किस चीज का अनुकरण कर सकते हैं? आतंकवाद की उग्रतर हो रही समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है?
हम जानते हैं कि हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में भी गांधी जी को निरुत्तर करने के लिए उनसे इस तरह के सवाल किए जाते थे। लेकिन महात्मा के पास सत्य और अहिंसा की ऐसी अचूक दृष्टि थी कि वे कभी भी लाजवाब नहीं हुए। उनका कहना था कि अगर किसी आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया है, तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगी? अंत में वह इस अहिंसक शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करनेवाला तथा जिस पर आक्रमण हुआ है, वह दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था, तो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। लेकिन इस पर किसी ने अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। शायद यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है।
लेकिन आतंकवाद की समस्या तो युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष होता है, जब कि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाए? इस संदर्भ में निवेदन यह है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता है, तो इरादा यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूं, मुझे अपनी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन न करना पड़े, तब बताओ कि मेरी बीमारी ठीक करने का नुस्खा तुम्हारे पास क्या है। विनम्र उत्तर यह है कि यह कैसे संभव है? स्वास्थ्य लाभ करने के लिए वह जीवन शैली कैसे उपयुक्त हो सकती है जिससे बीमारी पैदा हुई है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।
अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं, तो जो समाज हम बनाएंगे, उसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि वे निहायत अस्वाभाविक बस्तियां हैं, जहां जीवन का रस रोज सूखता जाता है। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय तेज वाहनों से आते-जाते रहें, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता न पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।
लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। आतंकवादी पागल नहीं होता है। वह अपनी समझ से किसी बड़े अन्याय के खिलाफ लड़ रहा होता है। जब ऐसा कोई अन्याय होगा ही नहीं और हुआ भी तो तुरंत उसे सुधारा जा सकेगा, तब आतंकवादी मानसिकता क्योंकर बनेगी? ऐसे समाज में मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। क्या इस तरह का समाज कभी बन सकेगा? पता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता न मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित न हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें अन्य प्रकार के आतंकवाद पैदा होते हैं। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।
ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमंे पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनके परिवार का एक सदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है
राजनीति में मूल्य (शेष भाग) : किशन पटनायक
पिछली प्रविष्टी से आगे : ऊपर की बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीति में मूल्यों की प्रबलता का होना एक निरन्तर स्थिति नहीं है । यह भी सोचना गलत है कि साधारण मतदाता या जनसाधारण मूल्यों पर बहुत आग्रह रखता है या जनसाधारण के दबाव से ही राजनीति सही दिशा में प्रवाहित होगी ; इतिहास बताता है कि यह काम आम आदमी का दायित्व नहीं है । मूल्यों और दिशाओं का प्रवर्तन बुद्धिजीवी करते हैं - तब करते हैं जब वे या तो सत्य की खोज करते हैं या लोक के प्रति अपने को उत्तरदायी समझते हैं । एक छोटे समूह के द्वारा संगठित-प्रचार होकर ये मूल्य जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करते हैं और व्यापक समाज में हलचल पैदा करते हैं । इसी बिन्दु पर जनसाधारण मूल्यों का संरक्षक भी बनता है ।लेकिन जब बौद्धिक समाज में जड़ता आ जाती है तब जनसाधारण पुन: मूल्यों के बारे में उदासीन हो जाता है ।
उत्तर भारत के मौर्यकाल से हर्षवर्धन तक और गोरे देशों में १७वीं-१८वीं सदी में ज्ञान और धर्म के क्षेत्रों में सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रबलता थी । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में यूरोप की राजनीति में क्रान्तिकारी मानवीय मूल्य स्थापित हुए और बाद में पूरे विश्व में इन मूल्यों का प्रसार हुआ ।कई औपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीति के तहत वहाँ के बौद्धिक समूह सक्रिय हुए । इन देशों की राजनीति में साम्राज्यवाद-विरोधी और पूँजीवाद-विरोधी मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हुई । भारत में गांधी और समाजवाद के अपने-अपने बौद्धिक वर्ग बने । जब बौद्धिक वर्ग व्यापक ढंग से और निरन्तरता के साथ राजनीति को मूल्यों के द्वारा प्रभावित करता है तब जनसाधारण भी मूल्यों के बारे में मुखर होता है । हाल के चुनाव में यह कितना हास्यास्पद लगता था कि कुछ बुद्धिजीवी लोग चुनाव घोषित हो जाने और नामांकन हो जाने के बाद भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रत्याशियों की पहचान करवाते थे । बुद्धिजीवियों के लिए यह जीवन भर का काम है, चुनाव के दिनों में वे अपना मत ठीक ढंग से दे दें , तो काफी है । प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका आउटलुक ने कई नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों को लेकर प्रत्याशियों की नैतिकता की जाँच करने की एक टोली बनाई थी । लेकिन इनमें से एक भी आदमी स्पष्ट शब्दों में नहीं बताता कि उदारीकरण और ग्लोबीकरण से भारत की आम जनता को क्या लाभ होगा । इस टोली का कोई भी व्यक्ति यह नहीं बताता कि लगातार बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी को कैसे रोका जाए और बुद्धिजीवियों की वेतनवृद्धि क्यों वांछनीय है ।धन के केन्द्रीकरण का भ्रष्टाचार और अपराध से कोई सम्बन्ध है या नहीं ? अपने युग के ज्वलन्त और बुनियादी सवालों पर जिन बुद्धिजीवियों का कोई स्पष्ट मत नहीं है वे चले हैं चुनाव-राजनीति को प्रभावित करने ! पक्षधर बनकर या अपना खेमा गाड़कर ही कोई बौद्धिक समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है ।
असल में राजनैतिक अनैतिकता की वृद्धि का युग समाज में बौद्धिक पतन का भी युग होता है । पिछले कई सालों में भारत की ज्ञान-संस्थाओं की सबसे बड़ी घटना है प्रोफेसरों और विशेषज्ञों के रहन-सहन और वेतन-भत्तों में अभूतपूर्व वृद्धि । उनकी जड़ता और उदासीनता के कारण देश के साधारण जनों का जो अपना पारम्परिक ज्ञान और विवेक था वह भी नष्ट हो गया है और कोई नया मूल्य भी स्थापित नहीं हो पाया है ।
फिर भी चुनाव के दिनों में मूल्यों की बात इसलिए होती है कि राजनेता या उसका समर्थक - बुद्धिजीवी जब जनसाधारण के पास जाएगा तो मूल्यों के बिना कोई खुला संवाद हो नहीं सकता है । अगर राजनीति में जनसाधारण नहीं होता तो ये लोग मूल्यों की बात पाखंड के स्तर पर भी नहीं करते । यह सत्य है कि राजनैतिक अस्थिरता जनसाधारण को पसन्द नहीं है , देश के लिए अच्छी चीज नहीं है । लेकिन 'स्थिरता' कोई ऐसा मूल्य नहीं है जो कांग्रेस या भाजपा की सरकार बनने से लोगों को प्राप्त हो जाएगा । अस्थिरता की एक प्रक्रिया चल रही है ; इस प्रक्रिया को कहाँ रोका जाएगा ? कहाँ-कहाँ रोकने पर पाँच-दस साल के बाद स्थिरता आयेगी । उन मूल्यों को स्थापि करने का वायेदा कोई भी बड़ा रजनैतिक दल नहीं कर रहा है । चुनाव के बाद दल-बदल आधारित सरकार हम नहीं बनायेंगे - यह वायदा कोई नहीं करता ।तब स्थिरता कैसे लाएँगे ? किसी भी खेमे के घटक यह वायदा नहीं करते कि जिस खेमे की ओर से चुनाव लड़ते हैं , अगले चुनाव तक उसी खेमे में रहेंगे ? अगर खेमा बदलने की भी गुंजाइश है तो स्थिरता कैसे आयेगी ? अन्ततोगत्वा 'राजनैतिक स्थिरता' और 'साम्प्रदायिक शान्ति' आम जनता की आर्थिक सुरक्षा पर ही टिकी रहती है । आर्थिक गैर-बराबरी और असुराक्षा बढ़ती रहेगी और साम्प्रदायिक शान्ति कायम रहेगी , यह कैसे सम्भव है ? करोड़ों लोग बेकार होते जाएँगे , विस्थापित होते रहेंगे तो राजनैतिक स्थिरता का आधार क्या होगा ?
बेरोजगारी , अशिक्षा आदि प्रश्नों का सीधा सम्बन्ध आर्थिक क्षमता से है । मार्च १९९८ के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने १० वर्षों के कुछ लक्ष्य घोषित किए ? बेकारी १० वर्षों में पूरी तरह समाप्त हो जाएगी । इतनी पूँजी और बजट का व्यय कहाँ से आएगा ? वेतन वृद्धि से ५० से १०० हजार करोड़ रु. का जो अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा , वह पैसा कहाँ से आएगा ? क्या इसके बाद भी बजट में में इतना पैसा रह जाएगा जिससे भाजपा सरकार नए रोजगार और सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा की योजनाएँ बना पाएगी ? वित्तीय इन्तजाम का उपाय बताये बगैर लोककल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करना विशुद्ध बेईमानी है । वेतन-वृद्धि को रोककर उसी पैसे को या तो प्राथमिक शिक्षा या रोजगार विस्तार के लिए लगाया जा सकता है । कोई खेमा इसके लिए तैयार नहीं है । यानी उनकी सरकारें न बेरोजगारी दूर करने के बारे में गम्भीर हैं , न प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के बारे में ।
जब अच्छाई कहीं भी नहीं होती है , और नए सिरे से अच्छाई पैदा करने की शक्ति मुख्य नायकों में नहीं होती है तब एक तरकीब निकलती है : बुराइयों को छोटी और बड़ी में बाँटने की । वैसे , बुराई से जुड़ना एक मानवीय स्थिति है ।व्यवहार के हर मोड़ पर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है जिसमें किसी न किसी बुराई के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से समझौता करना होता है । लेकिन छोटी बुराई का एक अपना दर्शन है ।अगर कोई बड़ी अच्छाई लाने का जोखिम भरा काम करने जा रहे हैं तभी आपका यह नैतिक अधिकार होता है कि किसी छोटी बुराई का सहारा वक्ती तौर पर ले लें ।जहाँ अच्छाई की नयी धारा प्रचलित करने का कोई संकल्प या साधना नहीं है ही नहीं , वहाँ छोटी बुराई की बात केवल अपनी अवसरवादी राजनीति को जारी रखने का बहाना है ।इसका एक दुष्चक्र बनता है । छोटी बुराई का सहारा लेते-लेते छोटी बुराई खुद एक बड़ी बुराई हो जाती है और आप बड़ी बुराई को छोटी समझने लगते हैं ।
१९६७ में कांग्रेस को बड़ी बुराई मानकर गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई गई थी । इस रणनीति के प्रवर्तकों ने सोचा था कि समाजवाद की राजनैतिक ताकत को बढ़ाने के लिए यह एक वक्ती कौशल है । जैसे-जैसे समाजवाद का अपना जनाधार सशक्त और व्यापक होता जाएगा , वैसे-वैसे छोटी बुराई और भी छोटी हो जाएगी । समाजवादियों और प्रगतिशीलों को इस रणनीति से बहुत फायदा हुआ ।उनको शक्ति बढ़ाने का बहुत मौका मिला - १९६७ से १९९७ तक , तीस साल का मौका मिला । लेकिन समाजवादियों और प्रगतिशीलों ने इस मौके का इस्तेमाल किया सत्ता-भोग के लिए , जनाधार बढ़ाने के लिए नहीं ।जन संघ उर्फ भारतीय जनता पार्टी ने इस समय का इस्तेमाल जनाधार बढ़ाने के के लिए किया । फलस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि समाजवादियों और प्रगतिशीलों का खेमा एकदम शक्तिहीन हो गया है । (समाप्त)
स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी , १९९८.
राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक
राजनीति एक व्यवहार है । जैसे-जैसे किसी राजनैतिक व्यक्ति या समूह की क्षमता और प्रभाव बढ़ने लगता है , उसको अपने आदर्श और नीति का कार्यरूप बतलाना पड़ता है । सिद्धान्त और व्यवहार में तालमेल रखना एक कठिन काम प्रतीत होने लगता है । सत्ता से वह जितना दूर रहेगा उतना वह आदर्श और नैतिकता की बात करेगा । प्रभाव बढ़ने पर और सत्ता हासिल करना सम्भव दिखाई देने पर उसकी असली परीक्षा शुरु होती है । आदर्श की चुनौती और स्खलन का आकर्षण - इन दो पाटों के बीच विवेकशील राजनेता सावधान रहता है । सत्ता से दूर रहते समय उसकी जो प्रतिबद्धताएँ और नैतिक संस्कार बन जाते हैं , सत्ताभोग के काल में उसके लिए कवच बनते हैं । इसलिए लम्बे समय तक सत्ता के पदों पर बना रहना अच्छा नहीं है । सफल और प्रभावी राजनेताओं को चाहिए कि वे स्वेच्छा से कुछ अरसे के लिए सत्ता की इच्छा पर संयम रखें । सत्ता की इच्छाविहीन राजनीति में कोई रस नहीं होता है ; मगर सत्ता की इच्छा पर संयम न होने से राजनीति की नैतिक प्रेरणा नष्ट हो जाती है ।
अगर प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने १८ साल के प्रधानमंत्रित्व के बीच कभी पाँच या सात साल का सत्ता पद से सन्यास लिया होता तो शायद वे आज भी एक आलोक-स्तम्भ बने रहते । सत्तापद पर चिपके रहने के कारण उनकी क्या दुर्दशा हुई है यह हाल के चुनावों में स्पष्ट हो रहा है । उनकी दौहित्र-वधु सोनिया के कांग्रेस के मुख्य प्रचारक होने के बावजूद उनके भाषण में कहीं यह बात नहीं आती है कि नेहरू की सरकारी नीतियों से देश को सही मार्गदर्शन मिला था । एक व्यक्तित्व के तौर पर इन्दिरा गांधी या राजीव गांधी की कोई तुलना जवाहरलाल नेहरू से नहीं हो सकती है । लालबहादुर शास्त्री से भी नेहरू बहुत बड़े आदमी थे। लेकिन आज के चुनाव में शास्त्री , इन्दिरा , राजीव , इन सबका नाम ले कर वोट माँगा जा सकता है । नेहरू के नाम से कोई वोट नहीं माँगता है । यह कितना विचित्र है ?
राजनीति में व्यवहार का पलड़ा कभी - कभी इतना भारी होता है कि मूल्यों से समझौता न करनेवालों को जनता भी हिकारत भरी नजर से देखती है । मानो बिलकुल शुद्ध होना अव्यावहारिकता है और इसलिए राजनीतिक अक्षमता का परिचायक है । मूल्यों और नैतिकता के बारे में जनसाधारण उतना कठोर नहीं है जितना कि हमलोग अकसर सोचते हैं । जनसाधारण राजनीति से कुछ परिणाम देखना चाहता है । आदर्शवादी व्यक्तियों और समूहों से परिणामों की उम्मीद नहीं जगती है तो आदर्श के प्रति वह उदासीन हो जाता है । जनसाधारण राजनीति से कैसा परिणाम चाहता है ? क्या जनसाधारण राजनीति में नैतिकता का नियामक बन सकता है ? इसका जवाब आज के राजनैतिक अध्ययनों-चिन्तनों से नहीं मिलता है ।
समझ लेना चाहिए की जनसाधारण की उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में एक नियामक का काम नहीं करती है । लोगों की भावना सिर्फ यह होती है कि अनैतिक काम बहुत अधिक नहीं होने चाहिए । अनैतिकता बहुत अधिक दिखाई नहीं देनी चाहिए ।अगर दो प्रतिद्वन्द्वी है और दोनों पराक्रमी हैं और उनमें से एक ज्यादा कलंकित है तो लोग अपेक्षाकृत साफ-सुथरे आदमी को पसन्द करेंगे । इस अर्थ में जनसाधारण की नैतिकता के बारे में एक नियामक भूमिका है । चूँकि जनसाधारण उपस्थित है और राय देने वाला है इसलिए भी राजनेता उसकी नैतिकता सम्बन्धी भावनाओं को अपील करने की कोशिश करते हैं । इसी तरह जनसाधारण एक नियामक है । जनसाधारण की उपस्थिति नहीं रहेगी तो शायद नैतिकता का प्रसंग भी नहीं उठेगा ।इस सीमित दायरे में जनसाधारण सार्वजनिक नैतिकता का नियामक है।
जनसाधारण पहले पराक्रम को देखता है , बाद में नैतिकता को । सामर्थ्य या पराक्रम हासिल करने के नियम और शुद्धता हासिल करने के नियम अलग-अलग होते हैं । शुद्धता के द्वारा कोई पराक्रमी नहीं बन पाता है । गांधीजी पराक्रमी थे , मगर शुद्धता के कारण नहीं ; पराक्रम अर्जन करने के उनके काम अलग थे , और शुद्ध बनने के अलग । नैतिकता और पराक्रम का संयोग उनमें १९१६ से १९४५ तक रहा । १९४५ के बाद उनका पराक्रम कम हो गया ।
पराक्रम प्राप्त करने के महान उपाय भी होते हैं , जोखिम भरे काम होते हैं , लेकिन बहुत छोटे-छोटे रास्ते भी होते हैं । धनी और सम्भ्रान्त लोग राजनीति में जल्द सफल हो जाते हैं।कुछ लोग चोरी करके धनी बनते हैं , धन के सहारे राजनीति करते हैं और सम्भ्रान्त बन जाते हैं । तीसरे कदम पर वे धन और आभिजात्य के बल पर राजनीति की चोटी पर जाने का दाँव लगाते हैं । निर्धनों और शूद्रों के लिए राजनीति में बने रहना बहुत कठिन है।इसलिए भी शूद्र राजनेता नैतिकता के प्रश्न को गौण कर देता है ।
पराक्रमी होने के लिए ये सारे छोटे रास्ते हैं । ये रास्ते प्राचीन काल से हैं । इस पराक्रम से सत्ता प्राप्ति हो सकती है - राष्ट्र या जनता को महान नहीं बनाया जा सकता है ।
राजनीति का स्वर्णयुग यानी पराक्रम और मानवीय मूल्यों का संयोग तब होता है जब किसी राज्य या भूभाग में धर्म , संस्कृति , ज्ञान , अर्थनीति या राजनीति के क्षेत्र में मूल्यों का आन्दोलन होता है । मूल्यों का यह आन्दोलन राजनीति के बाहरी क्षेत्रों में होने पर भी राजनीति इसके द्वारा प्रभावित होती है , नए मूल्यों को राजनीति में स्थापित करने की एक धारा राजनीति के अन्दर भी सबल होने लगती है । भारत के बौद्ध युग और गांधी युग की राजनीति में मानवीय मूल्यों का स्तर अन्य युगों की तुलना में उच्चतर था । जिसको भारत में गांधी युग कहा जाएगा वह विश्व के लिए समाजवादी आन्दोलन के विकास का भी युग था। इस संयोग का प्रभाव इतना अधिक था कि पूँजीवादी और प्रतिगामी विचारों के राजनैतिक दलों को भी कुछ मानवीय तथा प्रगतिशील मूल्यों के अनुकूल अपनी घोषणाएँ करनी पड़ती थीं। नेहरू-इन्दिरा की कांग्रेस अपने को समाजवादी कहती थी , यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी ( जनसंघ ) ने एक बार अपने को ' गांधीवादी समाजवादी ' घोषित कर दिया था । 'आखिरी आदमी ' - जो गांधीजी का शब्द था , अभी हाल तक राजनैतिक घोषणापत्रों पर मँडराता था । ( अगली प्रविष्टी में जारी ) ( स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी १९९८ )